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जितना मैं सहता हूँ उतना कहता कब हूंँ

ठहरा हुआ सा अश्क हूँ मैं बहता कब हूँ


सालों से जब तू ने न ली कोई ख़बर मेरी

खत कैसे मिले,अब वहाँ मैं रहता कब हूँ


मेरी आवारगी शामिल बेनाम किरदारों में

खंडहर सी पहचान बची, मैं ढहता कब हूँ


सूनी रात तन्हा दिल और यादों का मज्मा

मालूम नहीं कब रोता हूँ ,मैं हँसता कब हूँ


घर, आंगन,गली-मोहल्ले, सब हैं फिर भी

समझ में न पाए ख़ुद को मैं जंचता कब हूंँ


गो, साँपों की इसी बस्ती में रहता हूँ मैं भी

मगर ज़हरी कहाँ,किसी को डंसता कब हूँ


(विनोद प्रसाद)

 
 
 

मुमकिन नहीं कि हर मोड़ से अपनी राह मिले

गुलों सा रंग आए जब भी अपनी निगाह मिले


आईने में ख़ुद को देखना लाज़िम है मेरे दोस्त

जाने किस शक्ल में कब कौन सा गुनाह मिले


इन आँखों में जुगनुओं को संभाल कर रखना

कल की शब शायद तुझे और भी सियाह मिले



कुछ दिन और ठहर जाते कि वक़्त गुजर जाए

अबके सावन शायद, तुम्हें घर मेरा तबाह मिले



टुकड़ा टुकड़ा अन्दर ही अन्दर बिखरा हुआ हूँ

ख़ुद से तन्हाई में कोई भूलके भी न आह मिले



गुदड़ियों में जिन ज़ख़्मों को जतन से पाला था

वक़्त आएगा वही जख़्म बनके तुझे शाह मिले



दर्दो ग़म को अशआर में कौन सी सूरत दी जाए

आह के एवज गर उन नज़्मों को वाहवाह मिले


(विनोद प्रसाद)

 
 
 

धबराए हुए हैं लोग हाँके पड़े शहर में

तन्हाई की है चुगली, विरान से घर में



कल तलक ये मौसम था रश्के बहारां

अब फूल भी चुभते हैं सबकी नज़र में



कच्चे सही, गाँव के रस्ते थे सीधे सादे

अब बन गई गलियाँ कई, राहगुज़र में



सहमी सी हर सुब्ह डर के अब आती

आंगन की साझेदारी गुम गई बशर में



कुछ लोग शहर के दौलत के असर में

कुछ लोग हैं मर रहे रोटी की फ़िक्र में



रास नहीं आती चकाचौंध की दुनिया

बनके फ़क़ीर चल पड़ूं दश्ते सफर में

(विनोद प्रसाद)


रश्के बहारां:बसंत ऋतु की ईर्ष्या

बशर:आदमी :: दश्ते सफर :वनगमन

 
 
 
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