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मुमकिन नहीं कि हर मोड़ से अपनी राह मिले गुलों सा रंग आए जब भी आपनी आह मिले •••

मुमकिन नहीं कि हर मोड़ से अपनी राह मिले

गुलों सा रंग आए जब भी अपनी निगाह मिले


आईने में ख़ुद को देखना लाज़िम है मेरे दोस्त

जाने किस शक्ल में कब कौन सा गुनाह मिले


इन आँखों में जुगनुओं को संभाल कर रखना

कल की शब शायद तुझे और भी सियाह मिले



कुछ दिन और ठहर जाते कि वक़्त गुजर जाए

अबके सावन शायद, तुम्हें घर मेरा तबाह मिले



टुकड़ा टुकड़ा अन्दर ही अन्दर बिखरा हुआ हूँ

ख़ुद से तन्हाई में कोई भूलके भी न आह मिले



गुदड़ियों में जिन ज़ख़्मों को जतन से पाला था

वक़्त आएगा वही जख़्म बनके तुझे शाह मिले



दर्दो ग़म को अशआर में कौन सी सूरत दी जाए

आह के एवज गर उन नज़्मों को वाहवाह मिले


(विनोद प्रसाद)

 
 
 

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