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मुमकिन नहीं है,हर मोड़ से अपनी राह मिले

एक बार मुश्किलात से खुलकर निगाह मिले


देखना आईने में ख़ुद को लाज़िम है ऐ दोस्त

जाने किस चेहरे में कब कौन से गुनाह मिले


इन आँखों में जुगनुओं को,संभाल के रखना

कल की शब शायद तुझे और भी स्याह मिले


कुछ दिन तो ठहर जाते,कि वक़्त गुजर जाए

अबके बरसात शायद ये घर मेरा तबाह मिले


टुकड़ा टुकड़ा अंदर ही अंदर,बिखरा हुआ हूँ

ख़ुद से तन्हाई में, यूँ भूलके भी न आह मिले


गुदड़ियों में ज़ख़्मों को बड़े जतन से पाले हैं

मुमकिन है, ये जख़्म कभी बनके शाह मिले


कौन सी सूरत दें नासूर को नज़्मों में अपनी

आह के एवज़ गर शायर को वाह वाह मिले


(विनोद प्रसाद)

 
 
 

है अब तेरे जख़्मों में वो क़रार कहाँ

अब तसल्ली पर मुझे ऐतबार कहाँ


अब दरीचे भी नहीं खुले मिलते तेरे

कोई जाए भी कूचे में बारबार कहाँ


हो गई है, चमनज़ार की बेनूर सूरत

इनदिनों तू कहाँ है और बहार कहाँ


रेत ही रेत है जलते हुए पांव के तले

याद ए सबा ,ख़्याले आबशार कहाँ


अब तुरपाई के भी काबिल नहीं रहा

सिलें दामन ए हयात, तार तार कहाँ


बेरंग ज़िन्दगी में रंग भर दे जीने का

ऐसे लोग कहाँ हैं ऐसे फ़नकार कहाँ


यही अच्छा है अब उठके चला जाऊं

ग़ैर की बस्ती में, है मेरी दरकार कहाँ

(विनोद प्रसाद)ं

 
 
 

नहीं चाहिए बाग बगीचे

अपना तुम मृदुहास मुझे दोगे


एक छोटा सा घर आंगन

एक मुट्ठी आकास मुझे दोगे


अंतहीन एक यात्रा ये जीना है

अपना जीवन दे दूँ सारा

तुम भी ये एहसास मुझे दोगे


चौखट पे खड़ी मिलेंगी तुमको

मेरी व्याकुल प्रतिक्षा

लौट आने की आस मुझे दोगे


माटी गुलाल बना दूं,आओ तो

फागुन के मौसम में

तुम मिलन मधुमास मुझे दोगे


आकांक्षाएँ मर जाए घुटन में

गुम जाए सब सपने

अंधकार में उजास मुझे दोगे


नहीं चाहिए बाग बगीचे

अपने तुम विश्वास मुझे दोगे


(विनोद प्रसाद)

 
 
 
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