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जितना मैं सहता हूंँ उतना कहता कब हूँ ठहरा हुआ सा अश्क हूँ मैं बहता कब हूँ‌ •••

जितना मैं सहता हूँ उतना कहता कब हूंँ

ठहरा हुआ सा अश्क हूँ मैं बहता कब हूँ


सालों से जब तू ने न ली कोई ख़बर मेरी

खत कैसे मिले,अब वहाँ मैं रहता कब हूँ


मेरी आवारगी शामिल बेनाम किरदारों में

खंडहर सी पहचान बची, मैं ढहता कब हूँ


सूनी रात तन्हा दिल और यादों का मज्मा

मालूम नहीं कब रोता हूँ ,मैं हँसता कब हूँ


घर, आंगन,गली-मोहल्ले, सब हैं फिर भी

समझ में न पाए ख़ुद को मैं जंचता कब हूंँ


गो, साँपों की इसी बस्ती में रहता हूँ मैं भी

मगर ज़हरी कहाँ,किसी को डंसता कब हूँ


(विनोद प्रसाद)

 
 
 

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