
चलती है हुकूमत, किसकी दुनियादारी में
हरेक शख़्स ही जी रहा है,यहाँ दिहाड़ी में
कल गई शाम से निकला है अपने घर से
ढूंढने वो सूरज को, सामने उस पहाड़ी में
चर्चा नहीं करते यूँ ईमान की सबके आगे
तिनके छुपे रहते है,उन चोरों की दाढ़ी में
रहबरी न सौंपी जाए इन अंधों के हाथों में
कब आम हैं फलते भला,नीम की डारी में
देश की माटी का धरम वो क्या निभाएगा
बरसों लगाई आग,जो केसर की क्यारी में
विरान हैं गलियां, मुक़फ़्फ़ल सभी दरवाजे
देखा किया करते जो कभी चांँद अटारी में
माना दिन भारी भारी है चैन नहीं सुकूं नहीं
दिन काटे जाएँ इन खुशियों की रेज़गारी में
(विनोद प्रसाद)
मुकफ्फल


