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चलती है हुकूमत, किसकी दुनियादारी में

हरेक शख़्स ही जी रहा है,यहाँ दिहाड़ी में


कल गई शाम से निकला है अपने घर से

ढूंढने वो सूरज को, सामने उस पहाड़ी में


चर्चा नहीं करते यूँ ईमान की सबके आगे

तिनके छुपे रहते है,उन चोरों की दाढ़ी में


रहबरी न सौंपी जाए इन अंधों के हाथों में

कब आम हैं फलते भला,नीम की डारी में


देश की माटी का धरम वो क्या निभाएगा

बरसों लगाई आग,जो केसर की क्यारी में


विरान हैं गलियां, मुक़फ़्फ़ल सभी दरवाजे

देखा किया करते जो कभी चांँद अटारी में


माना दिन भारी भारी है चैन नहीं सुकूं नहीं

दिन काटे जाएँ इन खुशियों की रेज़गारी में

(विनोद प्रसाद)

मुकफ्फल

 
 
 

जमूरे!

हाँ, उस्ताद

आ गया ?

आ गया उस्ताद

साहब लोगों को सलाम किया?

किया उस्ताद किया

शाबाश!!

चल,साहब लोगों को

खुश करने के लिए

तमाशा शुरू करें

उस्ताद!

आज मन नहीं है

कल रात

राम खेलावन की बेवा के साथ

दुराचार हुआ

रात के सन्नाटे में

उसकी चीख चीखती रही

मुर्दों के मुहल्ले सोते रहे

भूख से पावित्री का बच्चा रोता रहा

बंद कर ये बकवास

साहब लोगों के काले चेहरे

दिखने लगेंगे

साहबान!

माफ कर दें

आज जमूरे के मन में

जम्हूरियत का भूत चढ़ा है

जमूरे,साहब लोगों को

अच्छी बातें सुना

अच्छी बातें?

उस्ताद

सुना है एक शख़्स आया है

आजकल

जो लोगों का हमदर्द और नेकनियत है

आम आवाम में शामिल

अनवरत प्रयास कर रहा है

फिर बकवास

बंद कर ये सब

साहब लोग

सुविधाभोगी और अवसरवादी हैं

तुम देखते नहीं

महल छोड़के सड़कों पर घूम घूम कर

जन जागरण कर रहा है

कितने लोग उसके हमराह हैं

उस्ताद ठहरो!

शायद सठिया गए हो

पहचानो इसे उस्ताद

इन्हींलोगों ने हमें

उस्ताद और जमूरे बनाए हैं

और हाथ फैलाकर भीख मंगवा रहें हैं

ये जन जन के गुनाहगार हैं

उस्ताद! अब भूख से नहीं मरेंगे

रोजी कर रोटी कमाएँगे

चलोगे उस्ताद?

चल बेटा आज

मान सम्मान से जीना सीखें

अब न तुम जमूरा न मैं उस्ताद

और न ये सड़क छाप मजमा

राष्ट्रधर्म सर्वोपरी


(विनोद प्रसाद)

 
 
 

हालात के हाथों क्या बिक जाना चाहिए था

उसके ख़्याल से तो हमें मर जाना चाहिए था


पत्थर जो हम पर फेंके गए सड़कों म़ें पड़े हैं

क्या झुक कर पत्थरों को उठाना चाहिए था


दिल तोड़ कर फिर पूछते हैं, दर्द कहाँ कहाँ

मासूम सवाल पे हमें मुस्कुरााना चाहिए था


कुछ रोज़ ही पहले इधर से गुज़रीं थी बहारें

गुंचे को, अचानक नहीं मुरझाना चाहिए था


आँखों की नमी देख कर ,छत से पलट गया

छाया था अगर अब्र ,बरस जाना चाहिए था


भूल गया होगा वो शायद याद तो करनी थी

शाम से पहले,तो घर लौट आना चाहिए था


कोई तक़दीर नहीं थी,मिटानी जिसे मुश्किल

ये नाम हमारा ज़ेह्न से मिट जाना चाहिए था

(विनोद प्रसाद)

अब्र :: बादल

 
 
 
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